Monday, 15 February 2010

सारांश:, अष्टावक्र गीता, एवं अष्टावक्र—एक परिचय


सारांश:
अष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। उनके पिता कहोड़ ऋषि थे जो उछालक के शिष्य थे और उनके दामाद भी। कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के आश्रम में ही रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पंडित थे। वे रोज रात भर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे। उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ में बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, "हे पिता ! आप रात भर वेद पढ़ते हैं लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया है।" गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ? सत्य स्वयं में है।
अष्टावक्र गीता
अष्टावक्र गीता अध्यात्म विज्ञान का बेजोड़ ग्रंथ है। ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ? मुक्ति कैसे होगी ? और वैराग्य कैसे प्राप्त होगा ? ये तीन शाश्वत प्रश्न हैं जो हर काल में आत्मानुसंधानियों द्वारा पूछे जाते रहे हैं। राजा जनक ने भी ऋषि अष्टावक्र से ये ही प्रश्न किये थे। ऋषि अष्टावक्र ने इन्हीं तीन प्रश्नों का संधान राजा जनक के साथ संवाद के रूप में किया है जो अष्टावक्र गीता के रूप में प्रचलित है। ये सूत्र आत्मज्ञान के सबसे सीधे और सरल वक्तव्य हैं। इनमें एक ही पथ प्रदर्शित किया गया है जो है ज्ञान का मार्ग। ये सूत्र ज्ञानोपलब्धि के, ज्ञानी के अनुभव के सूत्र हैं। स्वयं को केवल जानना हैज्ञानदर्शी होना, बस। कोई आडम्बर नहीं, आयोजन नहीं, यातना नहीं, यत्न नहीं, बस हो जाना वही जो हो। इसलिए इन सूत्रों की केवल एक ही व्याख्या हो सकती है, मत मतान्तर का कोई झमेला नहीं है; पाण्डित्य और पोंगापंथी की कोई गुंजाइश नहीं है। प्रस्तुत पुस्तक में इतनी सीधी-सादी और सरल व्याख्या की गई है जो सर्वसाधारण को बोधगम्य हो।

कुछ वर्ष पूर्व जब लेखकने इस अनूठे ग्रंथ का अध्ययन किया तो यह उसे इतने गहरे छू गया कि उसने इन सूत्रों की व्याख्या को कविता में समेटने का प्रयास किया है। यह मेरा अहोभाग्य है कि मैं इस ग्रंथ के संसर्ग में आया और उस अलक्ष्य की प्रेरणा से अष्टावक्र गीता के ये सूत्र कविताओं में बँध गये। इन कविताओं को देखकर आध्यात्मिक पुस्तकों के प्रसिद्ध प्रकाशन भुवन वाणी ट्रस्ट के मुख्य न्यासी सभापति श्री विनय कुमार अवस्थी ने सुझाव दिया कि इसे गद्य में सुगम बना दिया जाय, जिससे यह जन साधारण के लिये भी सुबोध और उपयोगी होगा। अष्टावक्र गीता की एक सुबोध व्याख्या प्रकाशित करने की उनकी बहुत दिनों से इच्छा और योजना थी। इस प्रकार, श्री अवस्थी जी के प्रोत्साहन से प्रस्तुत पुस्तक का वर्तमान स्वरूप तैयार हो गया। व्याख्या लेखक ने अष्टावक्र गीता के इन सूत्रों की व्याख्या के लिए ज्ञानदर्शियों के उपलब्ध अनुभवों और अध्यात्म के अनेकानेक ग्रंथों में समदर्शी व्यक्तव्यों का अनुशीलन किया है। हिन्दी में अष्टावक्र गीता की सबसे गहन और विस्तृत टीका आचार्य रजनीश द्वारा दी गई है जो छः खण्डों में अष्टावक्र महागीता शीर्षक से प्रकाशित है। इस पुस्तक में इसका भरपूर उपयोग किया गया है। साथ ही, सूत्रों की व्याख्या में महर्षि रमण के उपदेशों, जो श्री रमण महर्षि से बातचीत में संकलित हैं, इसका विशेष रूप से प्रयोग किया गया है। इसके अतिरिक्त, गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित संक्षिप्त योगवसिष्ठ, उपनिषद् सार (54 उपनिषदों का संकलन) तथा श्रीमद्भागवत गीता तत्व विवेचनी टीका के प्रासंगिक निरूपणों का भी सहारा लिया गया है। कुछ दार्शनिक पहलुओं के विवेचन में लोकमान्य तिलक के गीता रहस्य तथा श्रीपाद् दामोदर सातवलेकर के गीता की पुरुषार्थ बोधिनी टीका का भी सहयोग लिया गया है। लोक ऋषि कबीर के दोहे और वानियाँ अष्टावक्र के सूत्रों के बहुत करीब हैं; कोई-कोई तो बिल्कुल प्रतिकृति लगती हैं। उनका भी यथा स्थान उपयोग किया गया है। अष्टावक्र के जीवन की गाथा रांगेय राघव की पुस्तक प्राचीन कहानियाँ से ली गई है लेखक इन सबका आभारी है और कृतज्ञता ज्ञापन करता है।
और अन्त में, उस अलक्ष्य लक्ष को जिसे जनक ने कहा ‘‘मुझको मेरा नमस्कार‘‘
अष्टावक्रएक परिचय
अष्टावक्र आठ अंगों से टेढ़े-मेढ़े पैदा होने वाले ऋषि थे। शरीर से जितने विचित्र थे, ज्ञान से उतने ही विलक्षण। उनके पिता कहोड़ ऋषि थे जो उछालक के शिष्य थे और उनके दामाद भी। कहोड़ अपनी पत्नी सुजाता के साथ उछालक के ही आश्रम में रहते थे। ऋषि कहोड़ वेदपाठी पण्डित थे। वे रोज रातभर बैठ कर वेद पाठ किया करते थे। उनकी पत्नी सुजाता गर्भवती हुई। गर्भ से बालक जब कुछ बड़ा हुआ तो एक रात को गर्भ के भीतर से ही बोला, हे पिता ! आप रात भर वेद पढ़ते रहते हैं। लेकिन आपका उच्चारण कभी शुद्ध नहीं होता। मैंने गर्भ में ही आपके प्रसाद से वेदों के सभी अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया।’’ गर्भस्थ बालक ने यह भी कहा कि रोज-रोज के पाठ मात्र से क्या लाभ। वे तो शब्द मात्र हैं। शब्दों में ज्ञान कहाँ ? ज्ञान स्वयं में है। शब्दों में सत्य कहाँ ? सत्य स्वयं में है।

ऋषि कहोड़ के पास अन्य ऋषि भी बैठे थे। अजन्में गर्भस्थ बालक की इस तरह की बात सुनकर उन्होंने अत्यन्त अपमानित महसूस किया। बेटा अभी पैदा भी नहीं हुआ और इस तरह की बात कहे। वेद पण्डित पिता का अहंकार चोट खा गया था। वे क्रोध से आग बबूला हो गये। क्रोध में पिता ने बेटे को अभिशाप दे दिया। ‘‘हे बालक ! तुम गर्भ में रहकर ही मुझसे इस तरह का का वक्र वार्तालाप कर रहे हो। मैं तुम्हें शाप देता हूँ कि कि तुम आठ स्थानों से वक्र होकर अपनी माता के गर्भ से उत्पन्न होगे।’’ कुछ दिनों पश्चात् बालक का जन्म हुआ। शाप के अनुसार वह आठ स्थानों पर से ही वक्र था। आठ जगह से कुबड़े, ऊँट की भाँति इरछे-तिरछे। इसलिए उसका नाम अष्टावक्र पड़ा।

अष्टावक्र के जन्म के पूर्व ही पिता ऋषि कहोड़ धन अर्जन की आवश्यकतावश राजा जनक के वहाँ गये जहाँ शास्त्रार्थ का आयोजन था। एक हजार गाएँ राजमहल के द्वार पर खड़ी की गई थीं। उन गायों के सींगों पर सोना मढ़ दिया गया था। उनके गलों में हीरे-जवाहरात लटका दिये गये थे। शास्त्रार्थ की शर्त यह थी कि जो विजेता होगा वह इन गायों को हाँक ले जाएगा। तथा विजेता हारने वाले का किसी भी तरह से वध कर सकेगा। शास्त्रार्थ राज्य के महापण्डित वंदिन से करना होता था। कहते हैं शास्त्रार्थ में ऋषि कहोड़ हार गये। इसलिए विजेता पण्डित वंदिन ने उन्हें पानी में डुबाकर मरवा डाला।
जब काफी दिनों कर ऋषि कहोड़ आश्रम में लौटकर नहीं आये तो उछालक ने उनकी खोज कराई। उनके शिष्य द्वारा ज्ञात हुआ कि कहोड़ को शास्त्रार्थ में पराजित होने के फलस्वरूप वंदिन ने मरवा डाला है। इस तथ्य को बालक अष्टावक्र से छुपा कर रखा गया था। बालक अष्टावक्र अपने नाना उछालक को ही अपना पिता जानता था। बारह वर्ष बीत गये। अष्टावक्र तो गर्भ में ही महान पण्डित और ज्ञानी हो चुका था। इसके साथ ही उसने अपने नाना उछालक के आश्रम में बारह वर्ष तक और अध्ययन किया। तब तो वह ब्रह्मा के समान मेधावी हो चुका था। तभी एक दिन अचानक उसे अपने पिता के बारे में वास्तविक तथ्य की जानकारी हुई। उसने अपनी माता से इस सम्बन्ध में पूछा। तब उसकी माँ ने सारा वृत्तान्त कह सुनाया। बालक अष्टावक्र को बड़ा आघात लगा। उसने उसी समय माँ से कहा ‘‘माँ मुझे आज्ञा दो, मैं अभी जाकर उस दुष्ट को परास्त करता हूँ तब मैं अपने पिता का बदला अच्छी तरह से लूँगा।’’

माँ ने बालक को बहुत मनाया कि यह इसके लिए घातक होगा। वह अभी बालक है। लेकिन अष्टावक्र नहीं माने। वह अपने मामा श्वेतकेतु को साथ लेकर राजा जनक के नगर की ओर चल पड़ा। उस समय जनक के वहाँ महायज्ञ हो रहा था। उसमें भाग लेने के लिए देश भर से अनेक पण्डित बुलाए गए थे। अष्टावक्र सीधे राजप्रसाद की ओर पहुँच गए। लेकिन द्वारपाल ने अन्दर जाने से रोक दिया। उसने कहा कि वृद्ध और चतुर ब्राह्मण ही यज्ञ में जाने के अधिकारी हैं। बालकों को इसके अन्दर जाने का अधिकार नहीं है। अष्टावक्र ने अनेक प्रकार से द्वारपाल से वाद-विवाद किया। अन्त में उन्होंने कहा ‘‘द्वारपाल ! सिर के बाल सफेद होने से कोई मनुष्य वृद्ध नहीं हो जाता। जो व्यक्ति बालक होकर भी ज्ञानी है उसे ही देवताओं ने स्थविर कहा है। अगर ऋषियों के द्वारा स्थापित धर्म के अनुसार विचार करो तो अवस्था से, बाल पकने से, धन से या बन्धुओं के अधिक होने से मनुष्य को कोई महत्त्व नहीं मिलता है। सांगोपांग वेद को जानने वाले विद्वान् ही महत् और वृद्ध हैं। हम तुम्हारे महापण्डित वंदिन को देखने आए हैं। हम उस वंदिन को शास्त्रार्थ में परास्त करके विद्वानों को चकित कर देंगे। तब तुम्हें हमारी मेधा के बारे में मालूम होगा’’ तब कहीं द्वारपाल ने अष्टावक्र को अन्दर जाने दिया।

अष्टावक्र दरबार में भीतर चले गये। महापण्डित भीतर इकट्ठे थे। पण्डितों ने उसे देखा। उसका आठ भागों से टेढ़ा-मेढ़ा शरीर। वह चलता तो भी लोगों को देखकर हँसी आ जाती। उनका चलना भी बड़ा हास्यपद था। सारी सभा अष्टावक्र को देखकर हँसने लगी। अष्टावक्र भी खिलखिलाकर हँसा। जनक को विचित्र लगा। उन्होंने पूछा, और सब हँसते हैं, वह तो मैं समझ गया कि क्यों हँसते हैं। परंतु बालक तुम क्यों हँसे ?
बारह वर्ष के बालक अष्टावक्र ने कहा ‘‘मैं इसलिए हँस रहा हूँ कि चमड़े के पारखियों (मूर्खों) की सभा में सत्य का निर्णय हो रहा है। यह सभी सुनकर सन्न रह गये। सभा में सन्नाटा छा गया। महापण्डितों की जमात तिलमिला उठी। सम्राट् जनक ने धैर्य पूर्वक पूछा ‘‘धृष्ट बालक ! तुम्हारा मतलब क्या है ?’’ अष्टावक्र जरा भी विचलित नहीं हुआ। उसने जवाब दिया ‘‘बड़ी सीधी-सी बात है। इनको चमड़ी ही दिखाई पड़ती है। मैं नहीं दिखाई पड़ता। इनको आड़ा-टेढ़ा शरीर दिखाई पड़ता है। ये चमड़ी के पारखी हैं। इसलिए ये चमार हैं। राजन् ! मन्दिर के टेढ़े होने से कहीं आकाश टेढ़ा होता है ? घड़े के फूटे होने से कहीं आकाश फूटता है ? आकाश तो निर्विकार है। मेरा शरीर टेढ़ा-मेढ़ा है, लेकिन मैं तो नहीं। यह जो भीतर बसा है इसकी तरफ देखो।’’ बालक के मुख से ज्ञानपूर्ण उपहास सुनकर सभी पण्डित हतप्रभ और लज्जित रह गये। उन्हें अपने अहंकार और मूर्खता पर अत्यन्त पश्चाताप हुआ।

अष्टावक्र ने राजा जनक से कहाहे राजन् ! अब मैं आपके उस मेघावी राजपण्डित से मिलना चाहता हूँ, जो पण्डितों के बीच में भय बना हुआ है। उसी से शास्त्रार्थ करने की इच्छा से मैं यहाँ आया हूँ। मैं अद्वैत ब्रह्मवाद के विषय में उससे वार्ता करूँगा। राजा जनक ने कई तरह से उसे विचलित करने के लिए डराया और समझाया। शास्त्रार्थ के विचार को त्याग देने के लिए कहा लेकिन अष्टावक्र अडिग रहा और स्वर कठोर करके कहा—‘‘हे राजन् ! बालक कहकर आप मुझे हीन क्यों कहते हैं ? मेरा आग्रह है कि आप वंदिन को शास्त्रार्थ के लिए बुलाइए फिर आप देखेंगे कि मैं उसको किस प्रकार परास्त करता हूँ।’’ राजा को विश्वास होने लगा कि यह बालक असाधारण है। उन्होंने परीक्षा के लिए कुछ प्रश्न किये।

जनक ने पूछाहे ब्राह्मणपुत्र ! जो मनुष्य तीस अंग वाले, बारह अंश वाले, चौबीस पर्व वाले, तीन सौ साठ आरे वाले पदार्थ के अर्थ को जानता है वही सबसे बड़ा पण्डित है।’’
अष्टावक्र ने तुरन्त उत्तर दिया, ‘‘हे राजन् ! चौबीस पर्व छः नाभि, बारह प्रधि और तीन सौ साठ आरे वाला वही शीघ्रगामी कालचक्र आपकी रक्षा करे।’’
राजा जनक ने फिर कहा, ‘‘जो दो वस्तुएँ अश्विनी के समान से संयुक्त और बाज पक्षी के समान टूट पड़ने वाली हैं उनका देवताओं में से कौन देवता गर्भाधान कराता है ? वे वस्तुएँ क्या उत्पन्न करती हैं ?’’
अष्टावक्र ने कहा ‘‘ हे राजन् ! ऐसी अशुभ वस्तुओं की आप कल्पना भी न करें। वायु उनका सारथी है, मेघ उनका जन्मदाता है। फिर वे भी मेघ को उत्पन्न करती हैं।’’
राजा जनक ने पूछा, ‘‘सोते समय आँख कौन नहीं मूँदता ? जन्म लेकर कौन नहीं हिलता ? हृदय किसके नहीं है ? और कौन सी वस्तु वेग के साथ बढ़ती है ?’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘मछली सोते समय अपनी आँख नहीं मूँदती। अण्डा उत्पन्न होकर नहीं हिलता। पत्थर के हृदय नहीं होता। नदी वेग से बढ़ती है।’’
अष्टावक्र के वचनों को सुनकर राजा जनक प्रसन्न हो गये। उन्होंने उस ब्राह्मण बालक के हाथ जोड़कर कहा—‘‘हे ब्राह्मणपुत्र ! आपकी जैसी अवस्था है वैसे आप बालक नहीं हैं। ज्ञान में आप निश्चित ही वृद्ध हैं। मुझे आपकी मेधा पर निश्चित ही विश्वास हो गया है। आप जाइए, इस मण्डप के भीतर महापण्डित वंदिन बैठे हैं। उनके सामने बैठकर शास्त्रार्थ प्रारम्भ कीजिये।’’
अष्टावक्र ने अन्दर पहुँचकर वंदिन को शास्त्रार्थ के लिये ललकारा। वंदिन देखकर चौंक पड़ा। बिना उत्तर दिये उसकी नादानी पर हँसा। अष्टावक्र ने कहाहे महाभिमानी पण्डित वंदिन। कायरों की भाँति चुप क्यों बैठा है। आ मेरे सामने शास्त्रार्थ कर।’’
वंदिन ने अपमानपूर्ण वाणी सुनकर आवेश में प्रश्न प्रारम्भ किये। उसने कहा, ‘‘एक अग्नि कई प्रकार से प्रज्वलित की जाती है। सूर्य एक होकर भी सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता है। एक वीर इन्द्र सब शत्रुओं का नाश करता है और यमराज सब पितरों के स्वामी हैं।’’
अष्टावक्र ने कहा—‘‘इन्द्र और अग्नि दोनों सखा के रूप में साथ-साथ विचरते हैं। नारद और पर्वत दोनों देवर्षि हैं। अश्विनीकुमार दो हैं। रथ के पहिये दो होते हैं ! और विधाता के विधान के अनुसार स्त्री और पति दो व्यक्ति होते हैं। फिर वंदिन बोला—‘‘कर्म से तीन प्रकार के जन्म होते हैं। तीन वेद मिलकर वाजपेय यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। अव्वर्यु गण तीन प्रकार के स्नानों की विधि बताते हैं। लोक तीन प्रकार के हैं और लोक तीन प्रकार के हैं और ज्योंति के भी तीन भेद कहे गये हैं।’’

अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘ब्राह्मणों के आश्रम चार प्रकार के हैं। चार वर्ण यज्ञ को सम्पन्न करते हैं। दिशाएँ चार हैं। वर्ण चार प्रकार के हैं। और गाय के चार पैर होते हैं।’’
वंदिन ने कहा, ‘‘अग्नि पाँच हैं। पंक्ति द्वंद्व में पाँच चरण होते हैं। यज्ञ पाँच प्रकार के हैं। वेद में चैत्नय प्रमाण विकल्प, विपर्यय, निद्र और स्मृति ये पाँच प्रकार की वृत्तियाँ कही गई हैं। और पंचनद देश सर्वत्र पवित्र कहा गया है।’’
फिर अष्टावक्र ने कहा—‘‘अग्न्याधान की दक्षिणा में छः गोदान की विधि है। ऋतुएँ छः हैं। इन्द्रियाँ छः हैं और सारे वेद में छः साद्यस्क यज्ञ की विधि का वर्णन है।’’
वंदिन बोला,‘‘ ग्राम्य पशु सात प्रकार के होते हैं। वन के पशु भी सात प्रकार के होते हैं। सात छन्दों से एक यज्ञ सम्पन्न होता है। ऋषि सात हैं। पूजनीय सात हैं और वीणा का नाम सप्ततंत्री है।’’
अष्टावक्र ने कहा—‘‘ आठ गोपों का एक शतमान होता है। सिंह को मारने वाले शरभ के आठ पैर होते हैं। देवताओं में आठ वसु हैं। और सभी यज्ञों में आठ पहर का यूप होता है।’’
वंदिन ने उत्तर दिया, ‘‘पितृ यज्ञ में नौ समधेनी होती है। नौ भागों से सृष्टि क्रिया होती है। बृहती छंद के चरण में नौ अक्षर होते हैं। और गणित के अंक नौ हैं।’’
अष्टावक्र ने कहा, ‘‘दिशाएँ दस हैं। दस सैकड़ों का एक हजार होता है। स्त्रियों का गर्भ दस महीने में पूर्णावस्था को पहुँचता है। तत्व के उपदेसक दस हैं। अधिकारी दस हैं। और द्वेष करने वाले भी दस हैं।
वंदिन बोला—‘‘इंद्रियों के विषय ग्यारह प्रकार के होते हैं। ग्यारह विषय ही जीव रूपी पशु के बन्धन स्तम्भ हैं। प्राणियों के विकार ग्यारह प्रकार के हैं। और रुद्र ग्यारह प्रसिद्ध हैं।’’
अष्टावक्र ने उत्तर दिया—‘‘वर्ष बारह महीने में पूर्ण होता है। जगती द्वंद्व के बारह अक्षर होते हैं। बारह दिनों में प्राकृत यज्ञ पूरा होता है। और आदित्य सर्वत्र विख्यात है।’’
फिर वंदिन बोला—‘‘त्रयोदशी तिथि पुण्यतिथि कहीं गयी है। पृथ्वी के तेरह द्वीप हैं।’’ बस इतना कहकर वंदिन चुप पड़ गया

उसको आगे बोलते न देख अष्टावक्र ने विषय की पूर्ति करते हुए कहाआत्मा के भोग तेरह प्रकार के हैं। और बुद्धि आदि तेरह उसकी रुकावटें हैं।
बस इतना सुनते ही वंदिन ने अपना सिर झुका लिया। दूसरे ही क्षण सभा में कोलाहल मच गया। सभी अष्टावक्र की जय-जयकार करने लगे। आज महात्मा कहोड़ की आत्मा किसी अज्ञात लोक से अपने पुत्र अष्टावक्र को कितना आशीर्वाद दे रही होगी। सभी उपस्थित ब्राह्मण हाथ जोड़कर अष्टावक्र की वंदना करने लगे। तब अष्टावक्र ने कहा ‘‘हे ब्राह्मणों ! मैंने इस अहंकारी वंदिन को आज परास्त कर दिया है। इस अत्याचारी ने कितने ही पुण्यात्मा ब्राह्मणों को पराजित करके पानी में डुबवा दिया है। इसलिए मैं भी आज्ञा देता हूँ कि इस पराजित वंदिन को उसी तरह पानी में डुबा दिया जाय।’’
अष्टावक्र राजा जनक की आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगा। राजा स्तब्ध बैठे थे। अष्टावक्र क्रुद्ध होने लगा और कहा कि आप डुबाए जाने की आज्ञा क्यों नहीं देते। इस तरह चुप बैठे रहना मेरा अपमान है। राजा जनक ने अत्यन्त विनीत स्वर में कहा ‘‘हे ब्राह्मण ! आप साक्षात् ब्रह्मा हैं। इसलिए मैं आपके इस कठोर स्वर को भी सुन रहा हूँ। आपने वंदिन को जिस प्रकार की आज्ञा दी है उसका मैं समर्थन करता हूँ।’’

वंदिन ने आज्ञा स्वीकार करते हुए कहा इससे मेरा उपकार होगा। मुझे अपने पिता वरुण का दर्शन होगा। अष्टावक्र की ओर मुड़कर वंदिन ने कहा, ‘‘हे ऋषि अष्टावक्र ! आप महान हैं। सूर्य के समान दीप्यमान आपकी मेधा है। और अग्नि के समान आपका तेज है। मैं चलते समय आपको वरदान देता हूँ कि आप इसी क्षण अपने स्वर्गीय पिता कहोड़ को फिर से जीवित अवस्था में पाएँगे। उनके साथ अन्य ब्राह्मण भी जल से निकल आयेंगे।’’
उसी क्षण अन्य ब्राह्मणों के साथ कहोड़ जल से बाहर निकल आये। उन्होंने राजा जनक की वंदना की। राजा ने प्रसन्न होकर अनेकों बहुमूल्य उपहार देकर उन्हें विदा किया। कहोड़, अष्टावक्र और श्वेतकेतु के साथ उद्यालक आश्रम में वापस आये। कहोड़ ने पत्नी सुजाता और अष्टावक्र को समंगा नदी में स्नान करने के लिए कहा। अष्टावक्र ने जाकर उस नदी में स्नान किया। उसी क्षण उसका कुबड़ापन दूर हो गया। वह सुन्दर शरीर वाले युवक की तरह जल से बाहर निकला।

राजा जनक अष्टावक्र के ज्ञान से अत्यन्त प्रभावित हुए थे। उन्हें अपनी पूर्व धारणा पर पश्चाताप था। अष्टावक्र की बातों ने उन्हें झकझोर दिया था। दूसरे दिन जब सम्राट् घूमने निकले तो उन्हें अष्टावक्र राह में दिख गये। उतर पड़े घोड़े से और अष्टावक्र को साष्टांग प्रणाम् किया। उन्होंने निवेदन किया, महापुरुष ! राजमहल में पधारें। कृपया मेरी जिज्ञासाओंका समाधान करें। राजमहल विशेष अतिथि के सत्कार के लिये सजाया गया। बारह वर्ष के अष्टावक्र को उच्च सिंहासन पर बैठाया गया। उससे जनक ने अपनी जिज्ञासाएँ बतायीं। जनक की जिज्ञासा पर ज्ञान का संवाद प्रवाहित हो चला। जनक अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करते। अष्टावक्र उनको समझाते। जनक की जिज्ञासाओं के समाधान में अष्टावक्र अपना ज्ञान उड़ेलते गये। ज्ञान की गंगा बह चली। जनक अष्टावक्र का संवाद 298 सूत्र-श्लोकों में निबद्ध हुआ है।

इस प्रकार अष्टावक्र गीता की रचना हुई। अध्यात्म ज्ञान का अनुपम शास्त्र ग्रंथ रचा गया। इसमें 82 सूत्र जनक द्वरा कहे गये हैं और शेष 216 अष्टावक्र के मुख से प्रस्फुटित हुए हैं। यह ग्रंथ अष्टावक्र संहिता के नाम से भी जाना जाता है।
संवाद का प्रारम्भ जनक की जिज्ञासा से हुआ है। सचेतन पुरुष की अपने को जानने की शाश्वत जिज्ञासा। वही तीन मूल प्रश्न की-
पुरुष को ज्ञान कैसे प्राप्त होता है ?
मुक्ति कैसे होगी ?
वैराग्य कैसे प्राप्त होगा ?
तीन बीज प्रश्न हैं ये। इन्हीं में से और प्रश्न निकलते हैं। इन प्रश्नों के उत्तर आकार फिर इन्हीं प्रश्नों में विलीन हो जाते हैं। इन प्रश्नों के संधान में खोजियों के खोज के अनुभव का ज्ञान अपार भण्डार सृजित हुआ है। अनेकानेक पथ और पंथ बन गये। भारत में अध्यात्म आत्मन्वेषण की परम्परा प्राचीनकाल से सतत सजीव है। इन प्रश्नों के जो समाधान-उपाय ढूँढ़े गये, उन्हें सामान्यतया तीन मुख्य धाराओं में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात् भक्ति मार्ग, कर्ममार्ग और ज्ञानयोग मार्ग। भागवत् गीता जो युद्धक्षेत्र-कर्मक्षेत्र में कृष्ण-अर्जुन का संवाद है, जो हिन्दुओं का शीर्ष ग्रन्थ है, में तीनों मार्गों को समन्वित किया गया है। समन्वयवादी दृष्टिकोण है कृष्ण की गीता का। भक्ति भी, ज्ञान भी, कर्म भी। जिसे जो रुचे चुन ले। इसलिए गीता की सहस्त्रों टीकाएँ हैं, अनेकानेक भाष्य हैं। सबने अपने-अपने दृष्टिकोण का प्रतिपादन गीता के भाष्य में किया है। अपने दृष्टिकोण की पुष्टि गीता से प्रमाणित की है। इसलिए गीता हिन्दुओं का गौरव ग्रंथ है, सर्वमान्य है।
परन्तु अष्टावक्र गीता एक निराला, अनूठा ग्रंथ है। सत्य का सपाट, सीधा व्यक्तव्य। सत्य जैसा है वैसा ही बताया गया है। शब्दों में कोई लाग-लपेट नहीं है। इतना सीधा और शुद्धतम व्यक्तव्य कि इसका कोई दूसरा अर्थ हो ही नहीं सकता। इसमें अपने-अपने अर्थ खोजने की गुंजाइश ही नहीं है। जो है, वही है। अन्यथा नहीं कहा जा सकता। इसलिए अष्टावक्र गीता के भाष्य नहीं है, विभिन्न व्याख्याएँ नहीं है।

Ch 20


20: Liberation-in-Life

Janaka said: 


Where are the elements, the body, 
the organs, the mind ? 
Where is the void ? 
Where is despair ? 
My nature is transparent clearness. 

Where is scripture ? 
Where is Self-knowledge ? 
Where is no-mind ? 
Where is contentment and freedom from desire ? 
I am empty of two-ness. 

Where is Knowledge and ignorance ? 
Where is I ? 
Where is this ? 
Where is mine ? 
Where is bondage and liberation ?  
Self has no attributes. 

Where is the unfolding of karma ? 
Where is liberation-in-life, 
or even liberation at death ? 
There is only One. 

Where is the doer or enjoyer ? 
Where is the origin or end of thought ? 
Where is direct or reflected knowledge ? 
There is no person here. 

Where is the world ? 
Where is the seeker of liberation 
Where is the contemplative ? 
Where is the man of Knowledge ? 
Where is the soul in bondage ? 
Where is the liberated soul ? 
My nature is Unity. 

Where are creation and destruction? 
Where is the end and the means? 
Where is the seeker? 
Where is attainment? 
I am One. 

Where is the knower ? 
Where is knowing ? 
Where is the known, or knowledge itself ? 
Where is anything ? 
Where is nothing ? 
I am pure Awareness. 

Where is distraction, concentration, 
knowledge or delusion? 
Where is joy or sorrow? 
I am Stillness. 

Where is the relative? 
Where the transcendent? 
Where is happiness or misery? 
I am empty of thought. 

Where is illusion? 
Where is existence? 
Where is attachment or non-attachment? 
Where is person? 
Where is God? 
I am Awareness. 

Where is activity or inactivity? 
Where is liberation or bondage? 
I am timeless, indivisible. 
I am Self alone. 

Where are principles and scriptures? 
Where is the disciple or teacher? 
Where is the reason for life? 
I am boundless, Absolute. 

Where is existence or non-existence? 
Where is Unity or duality? 
Nothing emanates from me. 
No more can be said. 

Ch 19


19: Repose in the Self

Janaka said: 

With the tongs of Truth 
I have plucked the thorn of thinking 
from the innermost cave 
of my heart. 

Where is meditation, pleasure, 
prosperity or discrimination? 
Where is duality? 
Where even is Unity? 
I abide in the glory of Self. 

Where is past and future, 
or even present? 
Where is space, or even eternity? 
I abide in the glory of Self. 

Where is Self? 
Where is not-Self? 
Where is good and evil, confusion and clarity? 
I abide in the glory of Self. 

Where is sleeping, dreaming, waking, 
or even the fourth state? 
Where is fear? 
I abide in the glory of Self. 

Where is close or far, 
in or out, 
gross or subtle? 
I abide in the glory of Self. 

Where is life and death? 
Where is the world and worldly relations? 
Where is distraction and stillness? 
I abide in the glory of Self. 

There is no need to talk about 
the three ends of life. 
To talk of yoga is purposeless. 
Even talking about Truth is irrelevant. 
I rest in Self alone. 

Ch 18


18: Peace

Ashtavakra said: 

Praise That, 
which is Bliss itself, 
which is by nature stillness and light, 
and which by Its knowing 
reveals the world as a dream. 

One may enjoy the abundant pleasures of the world, 
but will never be happy 
until giving them up. 

How can one whose innermost heart 
has been scorched by the sun of sorrow 
that comes from duty 
be happy until the sweet rain 
of torrential stillness? 

The universe is but a thought 
in Consciousness. 
In Reality it is nothing. 
One who sees the true nature 
of existence and non-existence 
never ceases to exist. 

The Self which is 
absolute, effortless, timeless, immaculate-is 
without limits 
and at no distance from you. 
You are forever It. 

For those whose vision becomes unclouded, 
illusion evaporates 
and the Self becomes known. 
All sorrow is instantly dispelled. 

Seeing everything is imagination, 
knowing the Self as timelessly free, 
the sage lives as a child. 

Knowing himself as Absolute, 
knowing existence and non-existence 
to be imagination only, 
what is there for the desireless one 
to learn, say or do? 

Knowing for certain that all is Self, 
the sage has no trace of thoughts 
such as I am this or I am not that. 

The yogi who finds stillness 
is neither distracted nor focused. 
He knows neither pleasure nor pain. 
Ignorance dispelled, 
he is free of knowing. 

Heaven or poverty, 
gain or loss, 
society or solitude, 
to the yogi free of conditioning 
there is no difference. 

Religious merit, 
sensory pleasure, 
worldly prosperity, 
discrimination between this and that 
these have no significance 
to the yogi free of opposites 
such as  I do this 
and this I do not. 

The yogi who is liberated while living 
has no duties in this world, 
no attachments in his heart. 
His life proceeds without him. 

For the great soul 
who abides beyond desire, 
where is illusion? 
Where is the universe? 
Where is meditation on That? 
Where even is liberation from them? 

He who sees the world 
may try to renounce it. 
But what can the desire less one do? 
He sees there is nothing to see. 

He who has seen the Supreme Brahma 
thinks, I am Brahma. 
But he who has transcended all thought, 
what can he think? 
He knows no other than Self. 

He achieves self-control 
who sees his own distraction. 
But the great soul is not distracted. 
He has nothing to achieve. 
He has nothing to do. 

The man of Knowledge 
may live as an ordinary man, 
but he is not. 
He sees he is neither 
focused nor distracted, 
and finds no fault with himself. 

He who is beyond existence and non-existence-who 
is wise, satisfied, free of desire-does 
nothing, 
though the world may see him in motion. 

The wise one 
is not troubled by action or inactivity. 
He lives happily, 
doing whatever gets done. 

Like a leaf in the wind 
the liberated one 
is untethered from life-desireless, 
independent, free. 

For one who has transcended the world 
there is no joy or sorrow. 
With a stilled mind, 
he lives on with no body. 

One who knows Self, 
whose mind is serene and spotless, 
does not desire to give up anything, 
nor does he miss what is not there. 

His mind being in a natural state 
of emptiness, 
the wise one knows nothing 
of honor and dishonor. 
He does what comes to be done. 
One who acts knowing 
This is done by the body, not by I, pure Self, 
indeed does nothing-no 
matter how much acting takes place. 

The liberated one 
acts without claiming to be acting, 
but he is no fool. 
He is blessed and happy 
even though in the world. 

Having had enough 
of the endless workings of the mind, 
the wise one comes to rest. 
He neither thinks, nor knows, 
nor hears, nor sees. 

Beyond stillness, 
beyond distraction, 
the great soul thinks nothing 
of liberation or bondage. 
Having seen the universe is void-even 
though it seems to exist-he 
is God. 

He who believes he is a person 
is constantly acting, 
even when the body is at rest. 
The sage knows he is not a person, 
and therefore does nothing, 
even when the body is in motion. 

The mind of the liberated one 
is neither troubled nor pleased. 
It is actionless, motionless, desireless 
and free of doubt. 

The liberated one 
does not exert effort 
to meditate or act. 
Action and meditation just happen. 
 
Hearing ultimate Truth, 
the dull-witted man is bewildered. 
The wise man hearing Truth 
retreats within and appears 
dull-witted. 

The ignorant practice 
meditation and no-thought. 
The wise, 
like men in deep sleep, 
do nothing. 

The ignorant man finds no peace 
either by effort or non-effort. 
The wise man 
by Truth alone is stilled. 

Though they are by nature Self alone, 
pure intelligence, love and perfection; 
though they transcend the universe 
and are clearness itself, 
men of the world will not see this 
through meditation and practices. 

The ignorant man 
will never be liberated 
by his repetitious practices. 
Blessed is he who 
by simple understanding 
enters timeless freedom. 

Because he desires to know God, 
the ignorant man can never become That. 
The wise man is God 
because he is free of desire 
and knows nothing. 

Unable to stand steady 
and eager for salvation, 
the ignorant perpetuate 
the illusion of world. 
Seeing the world 
as the source of all misery, 
the wise cut it off at the root. 

The fool thinks peace comes 
by controlling the mind. 
He will never attain it. 
The wise one knows Truth, 
and is stillness itself. 

For he who thinks knowledge 
is things and ideas 
how can there be Self-knowledge? 
The wise do not see separate things-only 
the timeless Self. 
 
The fool tries to control the mind 
with the mind what folly! 
The wise one delights in Self alone. 
There is no mind to master. 

Some believe in existence; 
others believe nothing exists. 
Rare is the one who believes nothing 
and is never confused. 

Weak intellectuals may believe 
the Self is One without other. 
But being mired in illusion 
they do not actually know Self, 
so live out their lives in misery. 

The mind of one seeking liberation 
depends on things for perception. 
The mind of the liberated one 
perceives no-thing 
and is free of desire. 

Timid men fear sensory experience 
much as they do tigers. 
They seek refuge in caves 
and try to un-think the world. 

Sensory experiences are like elephants who, 
upon encountering a desireless man, 
see him as a lion. 
They immediately turn on their heels, 
or if unable to escape, 
stay on to flatter and serve him. 

A man with no doubts, 
who knows only Self, 
has no need of practice 
or liberation. 
Seeing, hearing, touching, smelling, eating
he lives as he is, happily. 

One whose mind is emptied and unconflicted 
by the mere hearing of Truth 
sees nothing to do, 
nothing to avoid, 
nothing to warrant his indifference. 

The sage does whatever 
appears to be done 
without thinking of good or bad. 
His actions are those of a child. 

Depending on nothing, 
one finds happiness. 
Depending on nothing, 
one attains the Supreme. 
Depending on nothing, 
one passes through tranquility 
to One Self. 

When one realizes 
he is neither the actor 
nor the one who watches, 
the mind-storm is stilled. 

The actions of the sage, 
free of pretence and motive, 
shine like clear light. 
Not so those of the deluded seeker 
who affects a peaceful demeanor 
while remaining firmly attached. 

Unbounded, unfettered, 
untethered from the projections of mind, 
the wise are free to play and enjoy, 
or retire to mountain caves. 

Whether honoring a spiritual scholar, 
a god, or holy shrine; 
whether seeing a desirable woman, 
a king, or beloved friend-the 
heart of the sage 
is unmoved. 

Though his servants, sons, 
wives, daughters, grandchildren 
and all his relatives 
ridicule and despise him, 
the yogi is undismayed. 

Though pleased he is not pleasured; 
though pained he does not suffer. 
This wonderful state is understood 
only by those like him. 

The belief in duty 
creates a relative world 
for its performance. 
The wise one knows Himself 
to be formless, timeless, 
all-pervasive, immaculate, 
and thus transcends duty and world. 

Even doing nothing 
the dull one is anxious and distracted. 
Even amidst great action 
the wise one remains still. 

Even in practical life 
the wise one remains happy. 
Happy to sit, 
happy to sleep, 
happy to move about, 
happy to speak, 
happy to eat& 

Because he knows Self 
the wise one is not disrupted by practical life. 
He is deep and still, like a vast lake. 
He is not like ordinary people. 
His sorrows have vanished. 

For the deluded one, 
even rest is an activity. 
For the wise, 
even action bears the fruit of stillness. 

The deluded one is often adverse 
to the things of his life. 
To one with no thought for body, 
attachment and aversion have no meaning. 

The deluded mind is caught up 
in thinking and not thinking. 
Though the mind of the wise one 
may think what thoughts come, 
he is not aware of it. 

The sage sees nothing being done 
even when performed by his hands. 
Like a child he is pure 
and acts without reason. 

Blessed indeed is he who knows Self. 
Though seeing, hearing, touching, smelling, eating, 
he never desires nor changes. 

For one who is void and changeless, 
where is the world and its imaginings? 
Where is the end? 
Where is the possibility of it? 

Glorious indeed is he who, 
free of desire, 
embodies Bliss itself. 
He has become absorbed in Self. 

In short, the great soul 
who has realized Truth 
is free of desire, enjoyment and liberation. 
In all of space and time 
he is attached to nothing. 

What remains for One 
who is Consciousness itself, 
who sees the non-existence 
of a phenomenal world created 
by the mere thought of a name? 

Peace is natural for one 
who knows for certain nothing exists, 
who sees appearances are illusion, 
to whom the inexpressible is apparent. 

Rules of conduct, detachment, 
renunciation, asceticism
what are these to one 
who sees the unreality of things, 
who is the Light of Awareness? 

How can there be joy or sorrow, 
bondage or liberation, 
for one who perceives non-existence 
and lights the infinite? 

Until Self-realization, 
illusion prevails. 
The sage lives without 
thoughts of I or mine. 
His connection to illusion is severed. 

What is knowledge? 
What is the universe? 
What are thoughts like 
I am the body, or the body is mine? 
The sage is imperishable and sorrowless. 
He is Self alone. 

When a weak man gives up meditation 
he falls prey to whims and desires. 

Even hearing Truth, 
the man of dull intellect 
holds on to illusion. 
Through effort and suppression 
he may appear outwardly composed, 
but inside he craves the world. 

Though others may see him working, 
the sage does nothing. 
Knowledge has banished effort. 
He finds no reason to do or say. 

The sage is fearless, unassailable. 
No darkness, no light, nothing to lose. 
Nothing. 

Patience, discrimination, 
even fearlessness
What use are these to the yogi? 
His nature cannot be described. 
He is not a person. 

No heaven, no hell, 
no liberation for the living. 
In short, Consciousness is Void. 
What more can be said? 

The sage neither yearns for fulfillment 
nor frets over non-attainment. 
His mind is cool 
and brimming with sweetness. 

Detached from desire, 
the sage neither praises peace 
nor blames the wicked. 
Equally content 
in happiness and misery, 
he would not change a thing. 

The sage neither rejects the world 
nor desires Self. 
He is free of joy and sorrow. 
He does not live 
and cannot die. 

The wise one lives without hope. 
He has no attachment to his children, wife or anyone. 
Pleasure means nothing to him. 
His life is glorious. 

The sage wanders about as he pleases 
and lives on whatever may come. 
Contentment ever dwells in his heart. 
And when the sun sets, 
he rests where he is. 

Rooted in Being, 
no thought of being born or reborn, 
the great soul is indifferent 
to the death or birth of his body. 

The wise one stands alone, 
caring for nothing, 
bereft of possessions. 
He goes where he will, 
unhindered by opposites, 
his doubts rent asunder. 
He is truly blessed. 

The wise one has no sense of mine. 
To him earth, stone and gold are the same. 
The knots of his heart have unraveled. 
He knows neither ignorance nor sorrow. 
He is excellent in every way. 

The liberated soul 
has no desire in his heart. 
He is content and indifferent. 
He has no equal. 

Only one free of desire 
knows nothing of knowing, 
says nothing needs saying, 
sees nothing to see. 

He who is without desire excels, 
be he beggar or king. 
He no longer sees good or bad. 

What is lust or restraint, 
or the desire for Truth 
to the yogi who has reached lifes goal, 
and who embodies virtue and sincerity? 

The inner experience of one 
who is free of desire and suffering, 
who is content and reposes in Self-how 
can it be described, 
and of whom? 

The wise ones state never varies. 
Sleeping soundly, he is not asleep. 
Lying in reverie, he is not dreaming. 
Eyes open, he is not wakeful. 

The man of Knowledge seems to think, 
but has no thoughts. 
He seems to have sense perceptions, 
but does not experience. 
He seems to have intelligence, 
but is empty-minded. 
He appears to be a person, 
but is not. 

The man of Knowledge 
is neither happy nor miserable, 
neither detached nor attached, 
neither liberated nor seeking liberation. 
He is neither this nor that. 
 
Even while distracted the blessed one is still. 
In meditation, he does not meditate. 
In ignorance, he remains clear. 
Though learned, he knows nothing. 

The liberated one, 
who abides unconditionally in Self, 
who is free of the concept of action and duty, 
who is always and everywhere the same, 
is desireless. 
He does not worry 
about what he did or did not do. 
 
The wise one is neither pleased by praise, 
nor annoyed by blame. 
He neither rejoices in life 
nor fears death. 

One of tranquil mind 
seeks neither crowds nor wilderness. 
He is the same wherever he goes.